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👓 दादा जी का ऐनक – बचपन की प्यारी कविता | Bachpan Ki Kavita in Hindi

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बचपन की यादों से जुड़ी भावुक कविता “दादा जी का ऐनक” पढ़ें। दादा जी, बचपन और रिश्तों की मिठास से भरी ये कविता आपके दिल को छू जाएगी। 👓 दादा जी का ऐनक | बचपन की यादों से जुड़ी एक प्यारी कविता  अरे राजू, अपने दादा जी का ऐनक किधर गया? जो आंखों पे कम, पर ज़िंदगी को साफ़ दिखाने के काम आता था। धूप में उसका कांच सुनहरी चमक देता था, और शाम को जब वो उतारते — तो जैसे पूरे दिन की थकान भी उतार देते थे। उस ऐनक से कभी रामायण पढ़ते, तो कभी बिल भरने की पर्ची ढूंढते। और कई बार उसी ऐनक के पीछे से हमारे झूठ भी पकड़ लेते थे! सिरहाने रखी ऐनक हर सुबह सबसे पहले उठती थी, क्योंकि दादा की आंखें नहीं, वो ऐनक ही तो सपनों की रोशनी थी। अब ना वो ऐनक है, ना वो धुंधली मुस्कान के पार देखती आंखें, बस रह गया है एक पुराना ऐनक का डिब्बा, जिसमें पूरे परिवार की समझदारी बंद है। नोट अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें 

हाजिर है गांव वाली पुरखिन चाची की बेहतरीन कविता । Bachpan-Ki-Kavita

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Childhood Memories Shayari | बचपन की यादें शायरी पढ़ें हिंदी में  पुरखिन काकी - Bachpan ki best kavita अरे राजू, अपनी पुरखिन काकी किधर गई ह? वो जो घर का आंगन थीं, और हर दहलीज़ की लक्ष्मण रेखा भी। जिनकी झुकी कमर में भी अकड़ बाकी थी, और जिनकी आंखों में सौ बरस की कहानियाँ पलती थीं। हर सुबह तुलसी को पानी देते हुए वो जैसे गांव को जगा देती थीं। "बेटा, पैर में तेल मल लो वरना बुढ़ापे में रोएगा..." ऐसी बातें, जो विज्ञान नहीं थीं, पर जड़ से जुड़ी थीं। पुरखिन काकी, जो हर कन्या को बेटी से पहले बहू बनना सिखाती थीं, और हर बहू को धीरे-धीरे मां बना देती थीं। जब गांव में कोई बीमार होता, तो डाक्टर से पहले काकी की आवाज़ आती — "हल्दी दूध दे दो, नज़र उतरवा दो, और सिरहाने तुलसी का पत्ता रख दो..." उनके पास कोई डिग्री नहीं थी, पर अनुभव की किताबें थी — पलाश के पत्तों में लिपटी, नीम की छांव में पकी। राजू, आज वो मंदिर की घंटी सुनाई नहीं देती, ना वो काकी की खाँसी, ना उनका "अरे बहू, वो तवा उलटा मत रख!" सब जैसे हवाओं में खो गया है। शायद अब वो छत पर नहीं, किसी तारे के पीछे ब...

बचपन की यादें: 10 लाइन की सुंदर कविता | Kids & Nostalgia

इस 10 लाइन की बचपन कविता में मिलेगी मासूमियत, हंसी और यादों की मिठास। बच्चों और बड़ों के लिए यादगार बचपन की कविताएँ। 1. बचपन की गलियों में था हर दिन खेलों का मेला,   2. मिट्टी की खुशबू में बसा था सारा प्यारा वाला।   3. न चिंता, न डर, न कोई बोझ भारी,   4. सिर्फ़ हँसी और मस्ती, था जीवन सुहावना प्यारी।   5. पेड़ की छाँव में कहानियाँ हमने सुनीं,   6. काग़ज़ की नावों में सपनों के मोती चुने।   7. माँ की गोदी थी सबसे बड़ी दुनिया,   8. पिता की उँगली थामे हमने सीखा था सहारा।   9. छोटे-छोटे लम्हों में समाई बड़ी खुशियाँ,   10. बचपन की वो यादें, आज भी हैं दिल के पास ज़िंदा।

Bachpan-Ki-Kavita सलीम चाचा -MAJEDAR SALEEM

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SHANDAAR KAVTA PADHE SALEEM CHACHA  सलीम चाचा अरे राजू, अपना सलीम चाचा नजर नहीं आते…। वो जो हर ईद पर सबसे पहले हमारे घर शीर-कुर्मा लेकर आते थे, और दीवाली में हमसे पहले अपने आंगन में दीया जलाते थे। जिनकी छड़ी से ज़्यादा तेज़ थी उनकी ज़ुबान, पर दिल ऐसा — जैसे रमज़ान की पहली इफ्तारी। हर बच्चे के नाम याद थे उन्हें, और हर गली की खबर रखते थे — बिन अख़बार। याद है राजू, वो काली साइकिल जो हमेशा टेढ़ी चलती थी, और जिसकी घंटी बजने से पहले ही पता चल जाता था — "लो सलीम चाचा आ गए!" वो चाचा जो कभी हिन्दू-मुसलमान नहीं बोले, सिर्फ इतना कहते — "ये गांव है बेटा, यहां रिश्ते मजहब से नहीं, दाल-रोटी बांटने से बनते हैं।" अब ना वो चाचा मस्जिद की सफाई करते दिखते हैं, ना मंदिर के बाहर बैठकर पंडित से बतियाते। ना वो पेड़ के नीचे बैठे ताश के पत्ते फेंकते हैं, ना चाय वाले को डांटते — "कम चीनी रख!" राजू, अगर कहीं मिले तो उन्हें मेरा सलाम कहना, और कहना — गांव अब भी वहीं है, पर वो जो मोहब्बत की आवाज़ थी न, अब वो नहीं आती… शायद उनके साथ चली गई। नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को...

Bachpan-Ki-Kavita दादा जी की बंदूक पढ़ें पचपन की कभी न भूलने वाली मिठास वाली कविता

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अरे राजू, दादा जी की बंदूक किधर गई ?   अरे राजू, अपने दादा जी की पुरानी वाली बंदूक किधर गई? जो संदूक में लिपटी रहती थी, पर जब बाहर आती थी, तो पूरे आंगन में जैसे इज्ज़त की हवा बहती थी। कभी-कभी दादा जी नीम की छांव में, चारपाई पर टिके हुए नली को साफ किया करते थे, पतली सी डोरी में कपड़ा बांधकर, बड़े सलीके से, बड़े सम्मान से। हम दूर से देखते रहते, साँस रोककर, डरते हुए, कि कहीं गोली चल न जाए... और तभी कभी-कभी जब दादा जी थोड़ा इधर-उधर देखते, हम थोड़ी देर को उसे छू लेते थे, और सच कहें तो — ऐसा लगता था जैसे मिसाइल छू लिया हो! दिल धड़कता था तेज़-तेज़, हथेली में गर्मी महसूस होती थी, मुहल्ले के लोग भी दूर से खड़े होकर देखते थे, बच्चे हों या बूढ़े — सबकी निगाहें बस उसी एक बंदूक पर होतीं, और लोग इंतज़ार करते थे कि शायद आज दादा जी किसी चिड़िया पर निशाना लगाएंगे। अब ना वो बंदूक है, ना वो डर और ना ही वो गर्व, ना वो चारपाई, ना नीम की छांव, बस यादें हैं — धूप से पके हुए किस्सों की तरह धीरे-धीरे सूखती जा रही हैं। अरे राजू, अगर कभी वो बंदूक मिल जाए, तो उसे किसी म्यूज़ियम में मत देना — उसे घर की दीवार प...

Bachpan-Ki-Kavita जुगनू सिर्फ किताबों में बचे हैं

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जुगनू गायब हैं  वो रातें जब जुगनुओं से बातें होती थीं, अब मोबाइल की टॉर्च से नींदें कटती हैं। पहले शेरों में होते थे चांद, जुगनू, तारे, अब हर मिसरे में मोबाइल और नेटवर्क के इशारे। जुगनुओं का जिक्र अब किताबों तक सीमित है, अंधेरे में अब बच्चे मोबाइल की टॉर्च से खेलते हैं। वो जुगनू पकड़ने की तड़प अब बच्चों में कहाँ, अब टॉर्च ऑन करके स्क्रीन से दिल लगाते हैं वो जहाँ। नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें 

गाँव के बचपन की यादें – Bachpan Ki Kavita और गाँव की प्यारी यादें

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गाँव की गलियाँ, बचपन की मस्ती और दोस्तों की मासूम यादें इस Bachpan Ki Kavita में जीवंत हैं। पढ़ें और खो जाएँ अपने गाँव के सुनहरे बचपन की यादों में। कट्टी अरे राजू, अपनी मिट्टी भरने वाली कट्टी किधर गई — बचपन वाली? वो जो टूटी-फूटी पर हमारी दुनिया थी, जिसमें भरके मिट्टी, हम पहाड़ बना लेते थे, और फिर खुद ही उस पर चढ़कर राजा बन जाते थे! याद है, तू हमेशा ज़्यादा मिट्टी भरता था, और मैं जलता था — कहता था, “देख लेना, मेरी कट्टी सबसे भारी होगी!” फिर दोनों मिलके होड़ लगाते थे, कौन सबसे ऊँची मिट्टी की ढेरी बनाएगा। वो जो प्लास्टिक की थी, पर सपनों से भारी, वो जिसके हैंडल पर तेरा नाम लिखा था, काले स्केच पेन से — अब ना वो कट्टी दिखती है, ना वो बचपन की मिट्टी। अरे राजू, अब ना हाथों में मिट्टी लगती है, ना पैर गंदे होते हैं, अब तो बस फोन के स्क्रीन पर "खेल" हो रहे हैं। राजू, अगर कभी मिले वो पुरानी कट्टी, तो एक बार फिर भर लें मिट्टी — कम से कम यादें तो ताज़ा हो जाएँगी। नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें 

चेतक और दादा जी की सवारी_BEST BACHPAN A SCOOTER WALI कविता । Bachpan ki best kavita

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🛵 कविता: चेतक और दादा जी की सवारी  Bachpan ki best kavita गाँव का पहला स्कूटर, दादा जी का मान। जिस दिन आया चेतक, उमड़ा सारा गॉंव।। देख-देख सब हैरान, जगमग उसकी शान। मेला लग जाए सड़क पर, बज उठे गली-गान।। फूले टायर हँसते रहे, दो बूँदों का तेल। पूरा शहर घुमा लाए, जैसे पंखों का खेल।। पीछे नाती खिलखिलाए, आगे दादा वीर। ‘होंsss सावधान बेटा!’ गूँजे गली-नगर-पीर।। सब्जी का झोला साथ में, डॉक्टर की दवा। ऑटो, टैक्सी, एम्बुलेंस—चेतक से ही सवा।। लेदर कवर चमकता था, दादी करती साफ। हर इतवार की सवारी, बनती गाँव की ताफ।। अब न वो किक सुनाई दे, न दादा की चाल। कबाड़ी की दुकान में, करता है टकसाल।। जिस दिन चेतक आया था, ढोल बजा चौपाल। बच्चे नाचे खुशी से, गूँजी हर इक ताल।। छत पे चढ़कर देखने लगे, बूढ़े और जवान। गाँव का पहला स्कूटर था, सबकी आँखों का मान।। शादी-ब्याह की शोभा था, बारात का श्रृंगार। दूल्हा जब चेतक चढ़े, बढ़े दुल्हन का प्यार।। बरसों तक पहचान बनी, दादा की थी सवारी। बिन चेतक सूना लगे, जैसे मेले की बारी।। अब भी दिल ये सोचता, काश वो दिन लौटे। गाँव की गलियों में फिर, दादा-नाती दौड़े।। कबाड़ी में खड़ा ह...

Bachpan-Ki-Kavita बुंदेलखंड महोबा : आज के आल्हा ऊदल युद्ध कविता वीर रस vs गूगल जमाने की : पार्ट 1

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बुंदेलखन में जब थे आल्हा ऊदल। BUNDELKHAND KE ALHA UDAL ➤ बुंदेलखंड के वीर, आल्हा-ऊदल का नाम। / पराक्रम का अंबर, गूँजे हर वीर का गान। ➤ ढोल-नगाड़े गूँजे, रणभूमि में जोश भारी। / तलवार की आवाज़ बोले, बहादुरी निहारी। ➤ ना फेसबुक, ना इंस्टा, ना थी कोई चाल। / संदेश घोड़े पर आता, वीरों का था मलाल। ➤ ना जीपीएस दिखाता, ना नक्शा का लोह। / तारे-चाँद रहे साथी, रास्ता बताया जोह। ➤ ना चैनल, ना ट्वीट, बस ढोल की थाप। / आल्हा-ऊदल की गाथा, गूँजे हर गाँव-नाप। ➤ सेल्फी-कैमरा न था, न वीडियो का रोल। / वीर छाप छोड़ गए, मैदान में बने बोल। ➤ ना ब्लॉग, न वेबसाइट, न कोई डिजिटल ध्वनि। / पर गाथा रही अमर, युगों तक उसी रवानी। ➤ सोचो अगर गूगल होता, सर्च पर क्या मिलता— / "युद्ध जीतने के राज", हर सैनिक पढ़ता खिलता। ➤ इंस्टा पर ट्रेंड बनता — "आल्हा का पराक्रम"। / ऊदल भी बनाये रील, तलवारों का हर कर्म। ➤ ट्विटर पे आए घोष — "युद्ध हुआ तैयार"। / दुश्मन टैग कर डरें, सुनो वीरों का वार। ➤ पर उस समय दिल बड़ा, साहस था ही जीत। / ना चाहिए था ट्वीट, न काउँट की कोई रीत। ➤ आज ज्ञान के भंडार ल...

अपना बचपन वाला "गिल्ली डंडा किधर रखा है रे" । GULLI DANDDA । Bachpan ki best kavita पढ़ें हिंदी में

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GULLI DANDDA KAVITA PADHE HINDI ME गिल्ली डंडा किधर रखा है रे- Bachpan ki best kavita अरे राजू! अपना बचपन वाला गिल्ली डंडा किधर रखा है रे? वही — जो बाबूजी ने खुद छील के बनाया था, और तू उसे भगवान की तरह संभालता था! याद है...? हर इतवार को कुएं के पास खेलते थे, और तू जीतने के बाद उसे चूम के जेब में रखता था — जैसे कोई ताज पहन लिया हो राजा ने! कहीं वो मिट्टी के ढेले में गड़ गया होगा, या फिर बक्से के नीचे पड़े पुराने बस्ते के साथ सो गया होगा? चल ना राजू, आज फिर ढूंढते हैं वो गिल्ली डंडा, शायद बचपन भी साथ मिल जाए... वो पेड़, वो धूल, वो हंसी की चोटियां — जहां उम्र हार जाती थी, और हम जीत जाते थे। 🌾🏏 गिल्ली डंडा नहीं मिला तो क्या, पर वो बचपन की यादें अब भी वहीं रखी हैं... दिल के कोने में। नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें 

बचपन के पुराने दिनो वाला स्कूल का बैग । SCHOOL BAG कविता पढ़ें Bachpan ki best kavita,

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स्कूल का बैग वो दिन भी क्या दिन थे… जब खट्टी इमली में मिठास ढूंढते थे, मंदिर के पीछे छुपकर किसी की नज़र से बचते थे। वो पुराना स्कूल का बैग, जिसमें किताबें कम, ख़्वाब ज़्यादा थे, कभी मिट्टी में लथपथ होता, तो मां की डांट में भी अपनापन होता। वो दोस्ती… वो भागना पीरियड से पहले, वो चॉकलेट के बदले वादे, वो गलियों में गूंजती हमारी हँसी, अब तन्हा शामों में सिसकी बन जाती है। अब तो बस यादें हैं… वो मंदिर, वो इमली, वो स्कूल — सब वहीं हैं शायद, पर हम कहीं खो गए हैं।

खोटा सिक्का । KHOTA SIKKA दो मिनट में ताजा करें आपका बचपन की यादें इन कवित की बेहद शानदार पंक्तियो में । Bachpan ki best kavita

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MAST KAVITA  PADHE KHOTA SIKKA खोटा सिक्का"  Bachpan ki best kavita अरे राजू, अपना बचपन का खोटा सिक्का किधर गया? वही जो तू हर खेल में दांव पे लगा देता था, जो असली से ज़्यादा काम आता था, जिसे तू अपने खजाने का हीरा बताता था। याद है, हम दोनों ने उसे गड्डे में गाड़ दिया था, कहकर — "ये खज़ाना है, किसी को बताना मत!" और फिर हर दोपहर उसे खोद-खोद के देखा करते थे, मानो उसमें कोई जादू छुपा हो। अरे राजू, वो सिक्का तो खोटा था, पर हमारी दोस्ती का सबसे कीमती हिस्सा था। अब वो सिक्का नहीं दिखता, ना ज़मीन में, ना जेब में, बस यादों में चमकता है — थोड़ा टेढ़ा, थोड़ा पुराना। कहीं वो भी तो नहीं चला गया तेरे साथ शहर की किसी दौड़ में? या तूने उसे किसी असली नोट से बदल डाला? राजू, अगर मिले कहीं वो बचपन वाला खोटा सिक्का, तो मेरे हिस्से की हँसी भी साथ ले आना... नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें 

BEST गांव की शायरी । Bachpan ki best kavita, KAVITA PADHE HINDI ME । बचपन की यादें ताजा करें कुछ चंद लाईनों में

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Childhood Memories Shayari | बचपन की यादें शायरी PADHE " मुझे गांव बुला रहा है  Bachpan ki best kavita मेरा मन नहीं लगता अब दिल्ली की सड़कों में, हर ओर धूल है, शोर है, पर सुकून कहीं नहीं। लाल बत्तियों पर भीड़ है, और रास्तों पर दौड़, पर मेरे अंदर एक गहरी ख़ामोशी सी जम गई है। दिल्ली में दिन भागते हैं और रातें जगती हैं, मगर दिल — बस एक पुराने कुएं की तरह सूखा है। मेट्रो की रफ्तार है, पर यादें वहीं अटकी हैं, जहां बैलगाड़ी की रफ्तार में भी चैन था। मुझे आ रहा है गांव, मुझे याद आ रही है छांव, जहां नीम की छाया में दोपहरें सो जाती थीं। जहां माँ के हाथ की रोटी में नमक नहीं — ममता होती थी, और बाबूजी की खामोशी में पूरी दुनिया की समझ। दिल्ली ने सब कुछ दिया — नाम, काम, शोहरत, पहचान, पर वो मिट्टी... वो मिट्टी अब भी मेरी सांसों में है। गांव का कुआं, पीपल की पत्ती, सावन की बूँदें, अब भी अंदर कहीं गूंजते हैं — “चल लौट चलें…” 🌿 **राकेश प्रजापति**

अरे राजू, अपनी सुराही किधर गई? कविता -दादा जी की यादें । Bachpan ki best kavita

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हिंदी कविता बचपन, दादा जी और गांव की यादों को संजोए हुए है। मिट्टी की सुराही का ठंडा पानी और बीते समय की स्मृतियाँ इसमें झलकती हैं। अरे राजू, अपनी सुराही किधर गई?  Bachpan ki best kavita                            अरे राजू, अपनी सुराही किधर गई जो एक बार दादा जी बैलगाड़ी में रखकर बाजार से लाए थे? उस दिन दादी ने जैसे कोई ख़जाना पा लिया हो, और हम बच्चों की नजरें बस उस सुराही की चमक पर अटक गई थीं। वो सुराही — मटमैले रंग की, लेकिन ठंडे पानी से भरी, जिसमें न बरफ थी, न फ्रिज का कमाल, फिर भी उसका एक घूंट, जैसे लू के थपेड़ों में अमृत पिला देता था। पर फिर… सालों बीते, दादा जी का झोंपा खाली हो गया, और वो सुराही भी — नीम के पेड़ के नीचे, मकड़ी के जालों में फंसी, धूल-मिट्टी से सनी, चुपचाप एक कोने में जमा सी पड़ी रही। जैसे कोई विरासत, जो अब किसी को याद नहीं, और सच कहूँ तो, जैसे दादा जी के जाने के बाद वो भी खुद को अधूरा सा महसूस करती हो। अब वो सुराही नहीं दिखती, ना उसकी गर्दन की वो प्यारी दरार, ना उसके मुंह पर दादी के लगाए काले...

लंगड़ी वफ़ा" कविता पढ़े BEST Bachpan-Ki-Kavita

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"HINDI ME PADHE LANGDI WAFA  KI KAVITA" "लंगड़ी वफ़ा" अरे राजू, अपनी लंगड़ी कुतिया किधर गई, वो जो मोहल्ले भर की पहरेदार थी, ना रसीद, ना पट्टा — पर सबसे वफादार थी। याद है तू बिस्किट लाकर उसके लिए छुपा देता था, और वो तेरी आहट सुन के दुम हिलाती थी, भले ही एक टांग से लंगड़ाती थी, पर मोहल्ले की हर गली उसके नाम से डरती थी। कभी वो भौंकती नहीं थी बिना वजह, और जब भौंकती — तो समझ जाना गली में कोई नया था, या फिर कोई अपने जैसा नहीं था। अरे राजू, वो जो तेरे पीछे स्कूल तक आती थी, और तुझे छोड़ने मंदिर के मोड़ तक जाती थी — अब ना दिखती है, ना सुनाई देती है। क्या किसी बिल्डर की सड़क में दब गई? या किसी सोसाइटी के "रूल्स" में खो गई? तेरी कुतिया तो बेघर थी, पर दिलवाली थी राजू। अगर कभी फिर दिखे वो लंगड़ी वफ़ा, तो सिर झुकाकर कह देना, "तेरा पुराना दोस्त  अब भी याद करता है तुझे।" नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें 

दादा जी की लाठी | हिंदी कविता | Rakesh Prajapati की यादों से जुड़ी कविता Bachpan-Ki-Kavita

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"दादा जी की लाठी" – राकेश प्रजापति की भावुक हिंदी कविता। दादा जी की ठक-ठक करती लाठी में छिपी कहानियाँ, सम्मान और जीवन की गहरी सीख को दर्शाती हुई कविता। 🪵 कविता: दादा जी की लाठी                      अरे राजू, अपने दादा जी की लाठी किधर गई? वो जो बेंत नहीं, बरगद की टहनी जैसी लगती थी, सधी हुई, टिकी हुई — पर हर मोड़ पर आदर की छाया लिए हुए। जब वो चलते थे, तो लगता था कोई सदी चल रही है, हर ठक-ठक में एक कहानी गूंजती थी — हिसाब की, हिसाब लेने की, और कभी-कभी माफ कर देने की। कभी वो लाठी छत पर कपड़े उड़ाने के काम आती, तो कभी बिल्ली भगाने के लिए दरवाज़े पर रख दी जाती। लेकिन असल में — वो हमारी रीढ़ थी, जिसे दादा जी अपने कांपते हाथों से थामे रहते थे जैसे कह रहे हों — "बेटा, सीधा खड़ा रहना, समय कभी झुकने नहीं देता।" अब ना दादा हैं, ना वो लाठी, ना वो आहट… बस एक कोना है आंगन का, जहाँ आज भी लकड़ी की खामोशी बोलती है। नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें 

स्वामी जी कौन थे कविता | Bachpan ki best kavita बचपन की कविता हिंदी में पूरी

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पढ़ें ‘स्वामी जी कौन थे’ कविता बचपन की यादों के साथ। हिंदी की यह प्रसिद्ध कविता बच्चों के लिए सीख और प्रेरणा से भरी हुई है। स्वामी जी   Bachpan ki best kavita गांव की पगडंडी पर, गेरूआ वस्त्रों में सजी एक परछाईं आती थी, माथे पर चंदन, हाथ में कमंडल, और होठों पर राम नाम की माला। वो घड़ी के टाइम पर फिक्स — मुर्गे की पहली बांग पर सुबह चार बजे जग जाते, गांव के बाहर पुराने कुएं पर जाते, डोल डालकर स्नान करते, और फिर सिर के बल आधा घंटा खड़े रहते — जैसे योग ही उनकी सांस हो। सात बजते ही उपदेश शुरू, गांव के लोग इकठ्ठा, बच्चे चुपचाप सुनते, बीच-बीच में हमें कुश्ती के दो-चार पेंच भी सिखा जाते। कहते थे — "गुस्सा मत करना, गुस्सा आत्मा का ज़हर है।" गर्मियों में साल में एक बार आते, पता नहीं किस दूर आश्रम से, पर आते तो लगता मानो गांव का हर आंगन पवित्र हो गया हो। हमेशा खड़ाऊ पहनते थे — एक बार मैंने पहन ली, तो डांटते हुए बोले, "पहले संत बनकर दिखाओ, तब मिलेगा इसे पहनने का हक।" लंबा कद, तेज नयन, अपने लोटे को मिट्टी से खुद चमकाते, और सादगी को ही अपना आभूषण मानते। कई बरस से उनकी कोई खबर नहीं...

“पुराने कंचों की यादें और बचपन का खेल फिर से जी लें” । Bachpan ki best kavita

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कंचों की यादें, बचपन का खेल, फिर से जी लें " गाड़े हुए कंचे"  Bachpan ki best kavita अरे राजू, अपने कंचे किधर गए? जो मैंने ज़मीन में गाड़ दिए थे — किसी खजाने की तरह, किसी सपने की तरह। वो नीले, पीले, हरे कंचे जो धूप में चमकते थे जैसे उनमें चांद-तारे कैद हों, और हमारी आँखों में जीत की चमक। हर शाम मोहल्ले के नुक्कड़ पर हम अपनी उंगलियों में शूटर फँसाकर दुनिया जीतने निकलते थे। वो गोल दायरे, वो "तू हटा! अब मेरी बारी!" वाली लड़ाइयाँ, और एक कंचे के लिए जान लगा देना — क्या गज़ब के दिन थे राजू! अब तो ना वो ज़मीन बची, ना वो खेल, ना वो मासूम जिद — बस दिल के किसी कोने में कभी-कभी एक कंचा बज उठता है... टीन-टन-टन... और हम फिर बच्चे बन जाते हैं। चल राजू, कभी चलें उसी पुराने मैदान में — शायद ज़मीन आज भी हमारे गाड़े हुए कंचों को याद करती हो।

बचपन की यादें और मोबाइल पर शायरी | Hindi Shayari

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पढ़ें बचपन की गलियों, खेल और मोबाइल पर मजेदार और दर्दभरी शायरी। हिंदी Shayari जो यादें और हँसी-खुशी दोनों दिल में जगाए।  " नया ज़माना, नया धंधा" बचपन की गलियों में, हँसी ठिठोली खेल, अब तो मोबाइल ने, बाँध दिए सब जेल। कंचे, गिल्ली, पतंग की, भूली सब पहचान, स्क्रीन की दुनिया में, खोया बचपन-गान। दादी-नानी सो गईं, कहानी भी सोई, AI की आवाज़ में, वही मिठास ना होई। किताबों की महक अब, रह गई बस याद, PDF ने छीन ली, कागज़ की खुशबू-साद। सपनों की परछाईं, सोई मन के गाँव, जगाना होगा फिर से, सच्चे रिश्ते भाव। स्मार्टफोन हो साथी, पर जीवन का मूल, माटी की महक से ही, रहे हमारा मूल। मोहल्ले की चौपालें, अब ग्रुप चैट में बदलीं, आवाज़ें इंसानों की, अब बस नोटिफ़िकेशन निकलीं। बरसात में भीगना था, कागज़ की नाव बनानी, अब बारिश की तस्वीरें, बस insta पर लगानी। राखी के धागों में, जो अपनापन मिलता था, अब online order से, वो जज़्बा भी सिलता था। ज़िंदगी की असली किताब, अब खुलती ही कहाँ है, Password के ताले में, हर रिश्ता कैद यहाँ है। बचपन की गलियों का वो मेला कहाँ, कंचे, पतंगें और खेलों का झमेला...

अखाड़ा और दादा जी की पहलवानी_कविता । Bachpan ki best kavita

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🥇 कविता: अखाड़ा और दादा जी की पहलवानी                 अरे राजू, अपने दादा जी का कुश्ती वाला अखाड़ा किधर गया? वो जो हर सुबह सूरज से पहले जागता था, और मिट्टी की हर सांस में ललकार भरता था। जहाँ दादा जी गूंजते थे — "ध्यान दो बालकों! कुश्ती दिल से लड़ी जाती है", जहाँ उनके हाथों की रेखाएं शेरों से भी सीधी चलती थीं। वो मिट्टी सिर्फ ज़मीन नहीं थी, वो उनके जीवन का शरीर था, धर्म था, कर्म था। जहाँ हर चोट का जवाब हथेली की थप से नहीं, हौसले की पकड़ से दिया जाता था। अब वो अखाड़ा सूना पड़ा है, उस पर शायद कोई गोदाम बन गया है, या फिर किसी ने पार्किंग बना दी है। और वो ललकार… अब बस यादों की गूंज बनकर रह गई है। अरे राजू, अगर मिल जाए फिर से वो अखाड़ा, तो चल वहां मिट्टी छू लें, शायद दादा की कोई घुंघराली मूंछें अब भी गूंजती हों उस हवाओं में। नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें