Bachpan-Ki-Kavita सलीम चाचा -MAJEDAR SALEEM
SHANDAAR KAVTA PADHE SALEEM CHACHA
सलीम चाचा
अरे राजू, अपना सलीम चाचा नजर नहीं आते…।
वो जो हर ईद पर सबसे पहले हमारे घर शीर-कुर्मा लेकर आते थे,
और दीवाली में हमसे पहले अपने आंगन में दीया जलाते थे।
जिनकी छड़ी से ज़्यादा तेज़ थी उनकी ज़ुबान,
पर दिल ऐसा — जैसे रमज़ान की पहली इफ्तारी।
हर बच्चे के नाम याद थे उन्हें,
और हर गली की खबर रखते थे — बिन अख़बार।
याद है राजू,
वो काली साइकिल जो हमेशा टेढ़ी चलती थी,
और जिसकी घंटी बजने से पहले ही
पता चल जाता था — "लो सलीम चाचा आ गए!"
वो चाचा जो कभी हिन्दू-मुसलमान नहीं बोले,
सिर्फ इतना कहते — "ये गांव है बेटा, यहां रिश्ते मजहब से नहीं,
दाल-रोटी बांटने से बनते हैं।"
अब ना वो चाचा मस्जिद की सफाई करते दिखते हैं,
ना मंदिर के बाहर बैठकर पंडित से बतियाते।
ना वो पेड़ के नीचे बैठे ताश के पत्ते फेंकते हैं,
ना चाय वाले को डांटते — "कम चीनी रख!"
राजू, अगर कहीं मिले तो उन्हें मेरा सलाम कहना,
और कहना — गांव अब भी वहीं है,
पर वो जो मोहब्बत की आवाज़ थी न,
अब वो नहीं आती… शायद उनके साथ चली गई।
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