दादा जी की लाठी | हिंदी कविता | Rakesh Prajapati की यादों से जुड़ी कविता Bachpan-Ki-Kavita
🪵 कविता: दादा जी की लाठी
अरे राजू,
अपने दादा जी की लाठी किधर गई?
वो जो बेंत नहीं,
बरगद की टहनी जैसी लगती थी,
सधी हुई, टिकी हुई —
पर हर मोड़ पर आदर की छाया लिए हुए।
जब वो चलते थे,
तो लगता था कोई सदी चल रही है,
हर ठक-ठक में
एक कहानी गूंजती थी —
हिसाब की, हिसाब लेने की,
और कभी-कभी माफ कर देने की।
कभी वो लाठी
छत पर कपड़े उड़ाने के काम आती,
तो कभी
बिल्ली भगाने के लिए दरवाज़े पर रख दी जाती।
लेकिन असल में —
वो हमारी रीढ़ थी,
जिसे दादा जी
अपने कांपते हाथों से थामे रहते थे
जैसे कह रहे हों —
"बेटा, सीधा खड़ा रहना, समय कभी झुकने नहीं देता।"
अब ना दादा हैं,
ना वो लाठी,
ना वो आहट…
बस एक कोना है आंगन का,
जहाँ आज भी लकड़ी की खामोशी बोलती है।
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