दादा जी की बंदूक कविता


अरे राजू, दादा जी की बंदूक किधर गई?
    __राकेश प्रजापति 

अरे राजू,
अपने दादा जी की पुरानी वाली बंदूक किधर गई?
जो संदूक में लिपटी रहती थी,
पर जब बाहर आती थी,
तो पूरे आंगन में जैसे इज्ज़त की हवा बहती थी।

कभी-कभी दादा जी
नीम की छांव में,
चारपाई पर टिके हुए
नली को साफ किया करते थे,
पतली सी डोरी में कपड़ा बांधकर,
बड़े सलीके से, बड़े सम्मान से।

हम दूर से देखते रहते,
साँस रोककर, डरते हुए,
कि कहीं गोली चल न जाए...
और तभी कभी-कभी
जब दादा जी थोड़ा इधर-उधर देखते,
हम थोड़ी देर को उसे छू लेते थे,
और सच कहें तो —
ऐसा लगता था जैसे मिसाइल छू लिया हो!
दिल धड़कता था तेज़-तेज़,
हथेली में गर्मी महसूस होती थी,

मुहल्ले के लोग भी दूर से खड़े होकर देखते थे,
बच्चे हों या बूढ़े — सबकी निगाहें बस उसी एक बंदूक पर होतीं,
और लोग इंतज़ार करते थे
कि शायद आज दादा जी
किसी चिड़िया पर निशाना लगाएंगे।

अब ना वो बंदूक है,
ना वो डर और ना ही वो गर्व,
ना वो चारपाई, ना नीम की छांव,
बस यादें हैं —
धूप से पके हुए किस्सों की तरह
धीरे-धीरे सूखती जा रही हैं।

अरे राजू,
अगर कभी वो बंदूक मिल जाए,
तो उसे किसी म्यूज़ियम में मत देना —
उसे घर की दीवार पर टांग देना,
ताकि हर आने वाला बच्चा
उसे देख कर वही सोचे —
“मिसाइल तो हमने भी छुई थी!”
अरे राजू,
अगर कभी वो बंदूक मिल जाए,
तो उसे दीवार पर ऐसे टांग देना,
कि अगली पीढ़ी पूछे —
"ये किसकी थी?"
और हम गर्व से कहें —
"दादा जी की, जिन्होंने कभी फायर नहीं किया,
पर सबको झुका के रखा!"

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