मुंबई लोकल ट्रेन कविता शायरी
मुंबई लोकल ट्रेन
भीड़ में भी चलती है ये तनहाई के संग,
हर डिब्बा है जैसे एक चलता हुआ रंग।
कभी ठहाका, कभी चुप्पी, कभी गालियाँ सीधी,
कभी किसी की आँखों में माँ की याद भी मीठी।
कांदीवली से चर्चगेट तक,
सपनों का सफर चढ़ता है हर पग।
किसी के हाथ में टिफिन, किसी के कांधे पर बैग,
किसी की नींद टूटी, किसी की ज़िंदगी है रैग।
भीड़ में भी इंसान पहचान जाता है,
वो रोज़ मिलने वाला दोस्त बन जाता है।
"थोड़ा सरक न भाई", "भाई उतरना है",
इन लाइनों में ही अपनापन बहता है।
स्टेशन बदलते हैं, चेहरे बदलते हैं,
पर जिंदगी के इम्तिहान रोज़ वही मिलते हैं।
एक टिक-टिक करती घड़ी के संग,
मुंबई की लोकल है रफ्तार का जंग।
कभी सीट मिल जाए तो किस्मत समझो,
वरना दरवाज़े की सांसों में खुद को खोजो।
कभी बारिश भीगाए, कभी धूप जलाए,
पर लोकल कभी नहीं रुक जाए।
यह लोकल नहीं, ये जिंदगी है हमारी,
जहां हर मुसाफिर है एक चलती कहानी।
मुंबई की धड़कन है, नब्ज़ की पहचान,
इसमें ही बसी है सपनों की जान।
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