मजबूरी का नाम महात्मा गांधी – एक व्यंग्यात्मक कविता

गांधी
महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति और समाज की सच्चाई पर व्यंग्य करती यह कविता आज़ादी, खादी, और नेताओं की नीयत पर गहरी चोट करती है।

मजबूरी का नाम महात्मा गांधी,
कहते-कहते उमर बीत गई मेरी आधी।
समय बदला, ज़माना बदला,
अब तो कपड़े भी छोड़ दिए पहनना खादी।

न नेता बचा, न नीयत बची,
हर बात में मिलती है अब सियासी बर्बादी।
जो पहले सेवा करते थे देश की खातिर,
अब ढूंढते हैं बस कुर्सी की जमाई।

आज़ादी के किस्से सुनते हैं बच्चे हँसकर,
क्योंकि किताबों से मिट रही है उसकी कहानी,
तिरंगे की कीमत अब सिर्फ भाषणों में है,
बाकी बिलकुल 🙂
मैं आपकी लिखी हुई कविता की टोन वही रखते हुए इसमें 20 नई लाइनें जोड़ देता हूँ, ताकि यह और भी मज़बूत और धारदार लगे।

मजबूरी का नाम महात्मा गांधी,
कहते-कहते उमर बीत गई मेरी आधी।
समय बदला, ज़माना बदला,
अब तो कपड़े भी छोड़ दिए पहनना खादी।

न नेता बचा, न नीयत बची,
हर बात में मिलती है अब सियासी बर्बादी।
जो पहले सेवा करते थे देश की खातिर,
अब ढूंढते हैं बस कुर्सी की जमाई।

आज़ादी के किस्से सुनते हैं बच्चे हँसकर,
क्योंकि किताबों से मिट रही है उसकी कहानी।
तिरंगे की कीमत अब सिर्फ भाषणों में है,
बाकी दिनों में तो बस सेल्फ़ी की निशानी।

महात्मा के नाम पर सड़कें बनती हैं,
पर उनके उसूलों पर कोई नहीं चलता।
जिन्होंने सिखाया था ‘सत्य और अहिंसा’,
आज वही लफ़्ज़ भीड़ में कहीं गुम सा लगता।

अब तो बस बचा है कहने को
मियां बीबी राजी तो कोई क्या करे काजी।
मजबूरी का नाम महात्मा गांधी,
कहते-कहते उमर बीत गई मेरी आधी।

गाँधी के चश्मे अब सिर्फ़ नोटों पर मिलते,
सपनों के भारत के टुकड़े-टुकड़े सिलते।

कौन पूछे भूखे पेट की सच्चाई,
भाषणों में बस बढ़ती जाती अमीरी की गहराई।

गाँवों का विकास अब स्लाइड पर सिमट गया,
धरती का दर्द भी डेटा में छिप गया।

सत्य की आवाज़ दबा दी भीड़ ने,
अहिंसा को ठुकरा दिया हथियारों की तीर ने।

नेताओं के चेहरे पर मासूमियत की नक़ल,
पर पीछे छुपा है सिर्फ़ सत्ता का चक़ल।

गाँधी के तीन बंदरों की क्या हालत हुई,
आँखें खोलकर भी सबने अनदेखी चुनी।

न सुनते हैं सच, न कहते हैं सही,
बस झूठ की मंडी में लगती है गवाही।

आज़ादी का सपना तोड़ दिया लालच ने,
देशभक्ति को बेच दिया बस चुनावी मंच ने।

गाँधी के नाम पर चलती है दुकान,
पर सच्चाई कहीं है अंधेरे में गुमनाम।

अगर लौटकर आते वो बापू हमारे,
तो शायद फिर से करते सत्याग्रह किनारे।

दिनों में तो बस सेल्फ़ी की निशानी।
महात्मा के नाम पर सड़कें बनती हैं,
पर उनके उसूलों पर कोई नहीं चलता,
जिन्होंने सिखाया था ‘सत्य और अहिंसा’,
आज वही लफ़्ज़ भीड़ में कहीं गुम सा लगता।
अब तो बस बचा है कहने को 
मियां बीबी राजी तो कोई क्या करे काजी 
मजबूरी का नाम महात्मा गांधी,
कहते-कहते उमर बीत गई मेरी आधी।
समय बदला, ज़माना बदला,
अब तो कपड़े भी छोड़ दिए पहनना खादी।






**राकेश प्रजापति**

टिप्पणियाँ

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