अखाड़ा और दादा जी की पहलवानी_कविता । Bachpan ki best kavita
🥇 कविता: अखाड़ा और दादा जी की पहलवानी
अरे राजू,
अपने दादा जी का कुश्ती वाला अखाड़ा किधर गया?
वो जो हर सुबह सूरज से पहले जागता था,
और मिट्टी की हर सांस में ललकार भरता था।
जहाँ दादा जी गूंजते थे —
"ध्यान दो बालकों! कुश्ती दिल से लड़ी जाती है",
जहाँ उनके हाथों की रेखाएं
शेरों से भी सीधी चलती थीं।
वो मिट्टी सिर्फ ज़मीन नहीं थी,
वो उनके जीवन का शरीर था, धर्म था, कर्म था।
जहाँ हर चोट का जवाब
हथेली की थप से नहीं, हौसले की पकड़ से दिया जाता था।
अब वो अखाड़ा सूना पड़ा है,
उस पर शायद कोई गोदाम बन गया है,
या फिर किसी ने पार्किंग बना दी है।
और वो ललकार…
अब बस यादों की गूंज बनकर रह गई है।
अरे राजू,
अगर मिल जाए फिर से वो अखाड़ा,
तो चल वहां मिट्टी छू लें,
शायद दादा की कोई घुंघराली मूंछें
अब भी गूंजती हों उस हवाओं में।
नोट:अगर पसंद आए तो comment लिखें और दोस्तों को शेयर करें

टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें