हाजिर है गांव वाली पुरखिन चाची की बेहतरीन कविता । Bachpan-Ki-Kavita
Childhood Memories Shayari | बचपन की यादें शायरी पढ़ें हिंदी में
पुरखिन काकी -Bachpan ki best kavita
अरे राजू, अपनी पुरखिन काकी किधर गई ह?
वो जो घर का आंगन थीं,
और हर दहलीज़ की लक्ष्मण रेखा भी।
जिनकी झुकी कमर में भी अकड़ बाकी थी,
और जिनकी आंखों में सौ बरस की कहानियाँ पलती थीं।
हर सुबह तुलसी को पानी देते हुए
वो जैसे गांव को जगा देती थीं।
"बेटा, पैर में तेल मल लो वरना बुढ़ापे में रोएगा..."
ऐसी बातें, जो विज्ञान नहीं थीं,
पर जड़ से जुड़ी थीं।
पुरखिन काकी,
जो हर कन्या को बेटी से पहले बहू बनना सिखाती थीं,
और हर बहू को धीरे-धीरे मां बना देती थीं।
जब गांव में कोई बीमार होता,
तो डाक्टर से पहले काकी की आवाज़ आती —
"हल्दी दूध दे दो, नज़र उतरवा दो,
और सिरहाने तुलसी का पत्ता रख दो..."
उनके पास कोई डिग्री नहीं थी,
पर अनुभव की किताबें थी —
पलाश के पत्तों में लिपटी,
नीम की छांव में पकी।
राजू, आज वो मंदिर की घंटी सुनाई नहीं देती,
ना वो काकी की खाँसी,
ना उनका "अरे बहू, वो तवा उलटा मत रख!"
सब जैसे हवाओं में खो गया है।
शायद अब वो छत पर नहीं,
किसी तारे के पीछे बैठी होंगी,
किसी नई काकी को सीख देती हुई —
कि कैसे आंगन बसता है,
कैसे घर एक मंदिर बनता है।
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