हीरा डायमंड वाली शायरी
अब मैं हीरा काटता हूं
कांच नहीं अब मैं हीरा काटता हूं,
हर चोट पे अब मुस्कान बांटता हूं।
टूटे थे पहले, बिखरे थे कभी,
अब ज़ख्मों से ही रोशनी छांटता हूं।
थी कभी नज़रें झुकी, होंठ खामोश,
अब लहजे में आग, हर बात में जोश।
जो समझे ना कोई, वो राह बन गया,
अब खुद अपने अंधेरों से टकराता हूं।
कभी शीशे-सा दिल, चुभता था हर शब्द,
अब पत्थरों से भी मोती निकालता हूं।
गिरा था जहां, अब वहीं पर्वत गढ़े,
कांच नहीं अब मैं हीरा काटता हूं।
कांच था पहले, हर ठोकर में चूर था,
अब दर्द सहकर, खुदा की नज़्म हूं मैं पुर।
जो कल तक था बस एक साया डर का,
आज हौसलों का खुला आसमां हूं मैं मगर।
हर वार पे अब सीना ताने खड़ा हूं,
हर तुफ़ान से कहता — अब तुझसे बड़ा हूं।
वो जो मुझे कमजोर समझते थे कभी,
अब उनके गुरूर को पल में मसलता हूं।
ना कोई किनारा, ना कोई सहारा,
तूफ़ानों से सीखा, कैसे हो उजाला।
बचपन में था जो शीशे-सा नाज़ुक,
अब वक्त की छेनी से हीरा काटता हूं।
****राकेश प्रजापति****
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